अपने हयात को हम आखिरी सलाम कर चले।
ज़िन्दगी अपनी किसी के नाम कर चले।।
इतनी फुर्सत नहीं कि पहलू में बैठ गुप्त्गूं करे।
ख़ाक डालो ऐसे कामों पर जो गुमनाम कर चले।।
वो रक़ीब भला जो ऊसूल का हो पक्का।
दूरियाँ भली उन हबीबों से बदनाम कर चले।।
कुछ ऐसी चली है हवा शहर में इन दिनों।
किस्सा रुसवाई का सरे-आम कर चले।।
ये किस मौज़ की तासीर है,वफायें बाज़ार में।
मरीज़-ए-मुहब्बत अपना दाम बेदाम कर चले।।
याद आये हम अपने अज़मत की ख़ातिर।
"सिद्धू" कोई तो ऐसा काम कर चले।।
_________________सिद्धू_______________
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