Monday, July 23, 2012



शाम की रंगत को और गहरा करती,
दूर खेतों से उठती धुएं की लकीर,
धुंधले से दिन का इकलौता उजला लम्हा,
बेला की सूखी टहनी पर अटका आख़री पत्ता ख़ामोशी से झर रहा था,
अपनी पूरी ज़िन्दगी के अधूरे पलों का हिसाब किये बगैर,
उदासिया शाम सी पसर रही थी दिन की रजाई में,
और इक लड़की पूछ रही थी चाँद का पता।
यकायक लांघकर सदियों की दीवार रु-ब-रु थे तुम,
अपने होने की तमाम योग्यताओं के साथ यक़ीनन ये तुम ही थ,
कहते है कि जब रात चूल्हे की गर्म राख सी जलती है बुझी-बुझी,
तब चांदनी होकर आती है यादें और आँखों पर डालकर,
अपनी गर्म हथेलियों का परदा छोड़ जाती है,एक नर्म छुअन,
छुअन जो कभी खुशबु बनकर महका देती है वजूद,
तो कभी स्याही बन कर रचती हैं नए कलाम,
यूँ तुम्हारे होने के एहसास के लिए गढ़ी जा सकती है,
हजारो-हज़ार उपमाएँ मगर मेरे लफ्जों में
 वो ताक़त कहा जो  बांध सके सकें तुम्हे,
लफ़्ज़ों से तो तुमने बांधा था दुनिया को,
और वो भी ऐसे की आज तक कोई सानी नहीं मिलता तुम्हारे नाम का,....
______________________________________सिद्धू_____________



1 comment:

संध्या शर्मा said...

बहुत सुन्दर है...
बेहतरीन रचना...
:-)

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